कुछ
दूर तक ही मैं देख पाता हूँ
बाकी
अंधेरा है, बाकी अंधेरा
कुछ
शब्द-अशब्द ध्वनियाँ
मेरे
कानों तक पहुँचते हैं,
बाकी
सुनसान है, बाकी सुनसान
स्पर्श
और गन्ध
आस-पास
कुछ होने या न होने का संदेश देते हैं ।
लेकिन
बाकी दुनिया से कटा हुआ हूँ मैं, कटा हुआ
लेकिन
मैं कहाँ हूँ?
12
फरवरी 2013
जब
मैं मेरठ शहर के एक छोटे इलाके में हूँ
तब
अन्यत्र कहीं नहीं, कहीं भी नहीं
दिल्ली,
मुम्बई, किसी शहर
या
भारत के किसी गाँव में नहीं हूँ मैं।
एक
जगह होना
बाकी
जगह नहीं होना है।
एक
बात सुनना
बाकी
बातें न सुनना है।
एक
काम चुनना
उसी
समय बाकी काम न चुनना है।
यहाँ
चुनाव समस्या नहीं
समाधान
की शुरूआत हो सकती है
एक
का चुनाव बाकी का बहिष्कार है
अपनी
जिन्दगी में हम एक रास्ता चुनते हैं
उसी
समय बाकी छोड़ देते हैं
हम
बहुराष्ट्रीय कम्पनी की गुलामी कर सकते हैं
उसी
समय हम नहीं बनते हैं
डॉक्टर,
नेता, या क्रांतिकारी
आदमी
का एक निर्णय
खुद
उसका और उससे जुड़े लोगों का
भविष्य
तय करता है।
लेकिन
समस्या यहाँ चुनाव या निर्णय नहीं
इससे
अधिक गहन व व्यापक है
एक
जगह होना और बाकी जगह न होना है
इस
दाग को कैसे मिटा देंगे हम?
इंसान
के अंग की,
कर्म
और ज्ञान के अंग की
सीमाएँ
हैं।
हमारी
दृष्टि, ध्वनि, स्पर्श
और
स्वाद की सीमाएँ हैं
काल,
स्थान और जिन्दगी की अंधेरी गुफा में,
इन
अंगों की तीली जलाकर
चल
रहा हूँ मैं।
मुझसे
चार कदम दूर तक है उजाला
बाकी
अंधकार विशाल।
अकेले-अकेले-अकेले
लघुतर
किन्तु जरा गम्भीर
तीली
की लौ में
मैं
भ्रमण कर रहा हूँ अंधेरी गुफा में।
कमतर
तीली का प्रकाश
बाकी
गुफा अंधकार में सराबोर
अभी
नहीं, नहीं है पूर्ण प्रकाश।
कई
जन तीली की लौ से,
मशाल
जलाते हैं
मैं
हम हो जाता है।
उजाला
कुछ अधिक तेज और व्यापक
लेकिन
अभी गुफा में उजाला पसरा नहीं।
मानव
समाज की देन
भाषा,
कला, साहित्य, विज्ञान और इतिहास
दृष्टि
को व्यापक बनाते हैं
बहुलांश
अंधेरी गुफा जगमगाने लगी।
रोशनी
पर्याप्त, सब दृश्यमान
वर्जना
की दीवारें,
सूझ-बूझ
भरे रास्ते,
चमगादड़
और खूँखार भेड़िए
लेकिन
किधर जायें
डर
है दरिन्दे का भोजन न बन जाये
एक
ऐसी सोच
जो
सही रास्ता दिखाये
टूटे
तारों को जोड़े-
गुफा,
अंधेरा, तीली, मशाल,
भाषा,
विज्ञान, भेड़िया और हम
इनके
बीच रास्ता खोजते वक्त
नहीं
भूलना है
एक
जगह होना
बाकी
जगह नहीं होना है।
इस
दाग को कैसे मिटा देंगे हम?
-विक्रम