मंगलवार, 12 मार्च 2013

एक जगह होना बाकी जगह नहीं होना है।



कुछ दूर तक ही मैं देख पाता हूँ
बाकी अंधेरा है, बाकी अंधेरा
कुछ शब्द-अशब्द ध्वनियाँ
मेरे कानों तक पहुँचते हैं,
बाकी सुनसान है, बाकी सुनसान
स्पर्श और गन्ध
आस-पास कुछ होने या न होने का संदेश देते हैं ।
लेकिन बाकी दुनिया से कटा हुआ हूँ मैं, कटा हुआ
लेकिन मैं कहाँ हूँ?
12 फरवरी 2013
जब मैं मेरठ शहर के एक छोटे इलाके में हूँ
तब अन्यत्र कहीं नहीं, कहीं भी नहीं
दिल्ली, मुम्बई, किसी शहर
या भारत के किसी गाँव में नहीं हूँ मैं।
एक जगह होना
बाकी जगह नहीं होना है।
एक बात सुनना
बाकी बातें न सुनना है।
एक काम चुनना
उसी समय बाकी काम न चुनना है।
यहाँ चुनाव समस्या नहीं
समाधान की शुरूआत हो सकती है
एक का चुनाव बाकी का बहिष्कार है
अपनी जिन्दगी में हम एक रास्ता चुनते हैं
उसी समय बाकी छोड़ देते हैं
हम बहुराष्ट्रीय कम्पनी की गुलामी कर सकते हैं
उसी समय हम नहीं बनते हैं 
डॉक्टर, नेता, या क्रांतिकारी
आदमी का एक निर्णय
खुद उसका और उससे जुड़े लोगों का
भविष्य तय करता है।
लेकिन समस्या यहाँ चुनाव या निर्णय नहीं
इससे अधिक गहन व व्यापक है
एक जगह होना और बाकी जगह न होना है
इस दाग को कैसे मिटा देंगे हम?
इंसान के अंग की,
कर्म और ज्ञान के अंग की
सीमाएँ हैं।
हमारी दृष्टि, ध्वनि, स्पर्श
और स्वाद की सीमाएँ हैं
काल, स्थान और जिन्दगी की अंधेरी गुफा में,
इन अंगों की तीली जलाकर
चल रहा हूँ मैं।
मुझसे चार कदम दूर तक है उजाला
बाकी अंधकार विशाल।
अकेले-अकेले-अकेले
लघुतर किन्तु जरा गम्भीर
तीली की लौ में
मैं भ्रमण कर रहा हूँ अंधेरी गुफा में।
कमतर तीली का प्रकाश
बाकी गुफा अंधकार में सराबोर
अभी नहीं, नहीं है पूर्ण प्रकाश।
कई जन तीली की लौ से,
मशाल जलाते हैं
मैं हम हो जाता है।
उजाला कुछ अधिक तेज और व्यापक
लेकिन अभी गुफा में उजाला पसरा नहीं।
मानव समाज की देन
भाषा, कला, साहित्य, विज्ञान और इतिहास
दृष्टि को व्यापक बनाते हैं
बहुलांश अंधेरी गुफा जगमगाने लगी।
रोशनी पर्याप्त, सब दृश्यमान
वर्जना की दीवारें,
सूझ-बूझ भरे रास्ते,
चमगादड़ और खूँखार भेड़िए
लेकिन किधर जायें
डर है दरिन्दे का भोजन न बन जाये
एक ऐसी सोच
जो सही रास्ता दिखाये
टूटे तारों को जोड़े-
गुफा, अंधेरा, तीली, मशाल,
भाषा, विज्ञान, भेड़िया और हम
इनके बीच रास्ता खोजते वक्त
नहीं भूलना है
एक जगह होना
बाकी जगह नहीं होना है।
इस दाग को कैसे मिटा देंगे हम?

-विक्रम 

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

तुम्हारी कविता

एक कविता लिखी तुमने
खुद के लिए
पढ़ा नहीं किसी ने
अच्छी कविता थी.
तुमने खोला जिसमें
अपने मनोभाव की व्यग्रता.
जब उकेरी कविता तुमने
कागज़ के बंजर मरूस्थल पर
पराये गम में
वह पूर्वोक्त से बेहतर थी.
फिर अपनी भावनाओं की कलम से
जमाने के दर्द को सजाया
कागज़ के वीराने में
पढ़ा जिसे सबने
थी वह सबसे शानदार कविता.
लेकिन जब उसे पुरस्कृत किया
रक्तरंजित हाथों ने
सोने के तमगे पहनाकर
तुम भी शामिल हो गए
भावी पीढ़ी के कातिलों में.

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अल्पजीवी

नियम ये कैसा 
आज के युग का
जिधर भी देखो 
लोग अल्पजीवी बने पड़े हैं
न ख्याल में है उम्र बाकी 
न उनकी कोशिश हो उम्र लम्बी

अभी जो मैंने घुमाई नज़रें
मृत्यु शैया पे दोस्ती तड़प रही थी
मर के कुछ लोग हैं अब भी ज़िंदा
कुछ लोग जीते जी मर चुके हैं

मेरे यार देखना
आज जो हैं अपने 
कल तुमसे दूर होते जा रहे हैं
जो ख़्वाब देखे थे हमने मिलकर
वो ख़्वाब भी अब टूटे जा रहे हैं

जज्बात की उम्र छोटी थी पहले लेकिन
धैर्य अब तो बेमौत मर रहा है
पाना चाहे वो तुरंत सबकुछ
हताश हो जिन्दगी लुट रही है

वो फूल दिल में खिला सवेरे
शाम होते ही मुरझा गया है
जो चले थे कभी जहाँ बदलने
आज वो अपना घर बना रहें हैं

नियम ये कैसा 
आज के युग का
जिधर भी देखो 
लोग अल्पजीवी बने पड़े हैं

बुधवार, 30 नवंबर 2011

कुत्ते की वफ़ा

मालिक की रोटी खाकर
दुम तो हिलाएगा
देश-हित का सपना
क्या कभी
उसके मन में आयेगा.

यह कुत्ता
कारों में चलता है,
भूख से बदहाल बच्चों को देखकर
शान से अकड़ता है
दिल-दिमाग पर हावी 
यौनांग, जिह्वा और उदर
स्वार्थों की लम्बी पूंछ
लपलपाता इधर-उधर

अपनी बस्ती में भी
बसते देखा स्वानों को
मालिक की वफ़ा निभाते
काट खाते देखा इंसानों को.

बेजान दिल

क्या?
80 करोड़ भूखे हैं देश में?
मैं कहता हूँ नहीं
80 नहीं, 35 करोड़ नहीं
न ही 35 लाख
35 हजार भी ज्यादा है
35 जीते-जागते इंसान
या इसे भी छोड़ो
केवल एक इंसान
एक
गरीबी में झुलसता
भूख से तिलमिलाता
तूफानी-सर्द हवाओं में
बिना कम्बल,
छत के बगैर
सोने को अकुलाता
क्यों?
तिसपर सवाल नहीं
क्यों मन में तुम्हारे
हृदयहीन तुम,
निष्ठुर
तुम्हारे लिए 80 करोड़ भूखे इंसान
और 80 करोड़ पत्थर के बेजान टुकड़ों में
कोई अंतर नहीं.

नवप्रभात

शैशव रात के
गहन अन्धकार में
अंडे की खोल तोड़
निकला एक नन्हा चूजा
पलकें झपकाते
देखता आस-पास
अन्धकार-अन्धकार
तभी अकस्मात
मद्धम चांदनी की किरणों ने
दिया प्रकट होने का आभास
चूजे ने देखा आस-पास
दुनिया है सुन्दर,
नहीं उदास
हाथ जोड़ विनती करता वह बार-बार
रात अब ढले नहीं
चाँद अब छुपे नहीं
भय से व्याकुल अपरम्पार
चाँद के छिप जाने पर
अंधियारी रात आयेगी
पगला वह क्या जाने?
निशा जब छँट जायेगी
चाँद डूबेगा
सूरज की किरणें
नवप्रभात लायेंगी.

कितनी शानदार है यह मौत

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाउंगा.
मै तो दरिया हूँ समंदर में उतर जाउंगा.

                        -अहमद नदीम क़ासमी

मौत आती है दबे पाँव
चुपचाप दबोचती है
जिस्म और जान को.
लोग अकाल मौत मरते हैं
निरुद्देश्य-निर्मम
बड़ी भयावह है यह मौत

पता नहीं कब

मुझे-तुझे या उसे
मौत आकर कस ले
शिकंजे में
बड़ी भयावह है यह मौत

चलते हुए

बस के नीचे कुचला जाना
कैंसर या दिल के दौरे का
शिकार होना
बड़ी भयावह है यह मौत

जिन्दगी से निराश हो

लगाना मौत को गले
या अनगिनत बीमारियों की
चपेट में आ जाना
बड़ी भयावह है यह मौत

लोग मर रहें है

पल-पल तिल-तिल
हम उनकी याद में
व्याकुल हैं
बड़ी भयावह है यह मौत

लेकिन कुछ लोग

जीते हैं शान से
नहीं चुपचाप मरते हैं शान से
किसी मासूम के लिए
देशहित
हंसते हुए कुर्बान होना
भय नहीं गर्व देता है
कितनी शानदार है यह मौत.